- Hindi News
- Db original
- Dear Man! Build Toilets By Breaking Promises Like Breaking The Moon And Stars, Or Building Another Crown; Believe It, The Toilets Are More Important Than The Taj Mahal
Ads से है परेशान? बिना Ads खबरों के लिए इनस्टॉल करें दैनिक भास्कर ऐप
नई दिल्ली6 दिन पहले
- कॉपी लिंक

किसान आंदोलन और चीन से तनातनी जैसी सनसनीखेज खबरों के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट एक बेमजा राग अलाप रहा है। अदालत चाहती है कि राज्य सरकार उसे उन थानों के बारे में बताए, जहां महिला शौचालय नहीं हैं। अदालत ‘जनरल नॉलेज’ के लिए ये नहीं चाहती, बल्कि कानून की छात्राओं की शिकायत पर उसने ये जानकारी मांगी है। दरअसल छात्राओं की शिकायत है कि थानों में औरतों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं।
कुल मिलाकर कानून तक औरतों की सीधी पहुंच रोकने के लिए जितने रोड़े अटकाए गए, थानों में शौचालय न होना, उनमें से एक है। ये थाने को महिलाओं के लिए वर्जित जगह बना देता है। ठीक वैसे ही, जैसे रात में घर से बाहर की दुनिया।
वैसे हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की लानत-मलानत तो की, लेकिन शौचालयों के मामले में अदालतें और गई-गुजरी हैं। कानूनी मामलों पर शोध करने वाली संस्था विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के मुताबिक 100 जिलों में महिला शौचालय नदारद हैं। यहां शौचालय तो हैं, लेकिन उन पर पुरुषों का कब्जा रहता है। वे पुरुषों की जरूरतों के हिसाब से बने हुए हैं। शोध में आगे पता लगता है कि 555 जिला अदालतों में सिर्फ 40% वॉशरूम ऐसे हैं, जो पूरी तरह चालू हैं। इनके अलावा कहीं वॉशरूम हैं तो पानी नहीं, कहीं पानी है तो वॉशरूम खस्ताहाल। कई अदालतों में सबकुछ है, लेकिन दरवाजे पर भारी-भरकम ताला लटका है। हाल ऐसे हैं कि इंसाफ के लिए अदालत आने वाली औरतों को तो छोड़िए, वहां महिला वकीलों का भी रहना मुश्किल है।
वैसे थाने-अदालतें तो खैर भली औरतों के लिए हैं ही नहीं। औरतें घर में खाना पकाती, बच्चे संभालती, टीवी पर साजिश-साजिश देखती सुहाती हैं। या फिर ज्यादा हुआ तो कभी बाजार निकल गईं और आटा-मसाला या खुद के लिए इत्र-फुलेल खरीद लें, लेकिन उनका बाजार जाना भी खासी शामत लेकर आता है। घंटे-आध घंटे में बच्चे चॉकलेट न मांगें, लेकिन औरत को फारिग होने की तलब जरूर हो आती है। पेट को दबाए, कंधे झुकाए वो या तो आनन-फानन में काम निपटा-भर देती है या फिर बगैर खत्म किए ही लौट आती है। वहीं साथ निकले पति महोदय आराम से मुंह फेरकर हल्के हो लेते हैं। ठीक वहां, जहां लिखा हो- यहां दीवार गंदी करना मना है। घर लौटकर पत्नी को डांट भी सुननी होती है। जब तुमसे जरा देर भी नहीं रहा जाता तो बाहर निकलती ही क्यों हो?

सच है। औरतों से जरा देर भी नहीं रहा जाता। खुद साइंस ये कहता है। वो बताता है कि क्यों औरतों की वॉशरूम इस्तेमाल करने की जरूरत मर्दों से कई गुना ज्यादा होती है। इसकी कई वजहें हैं। एक वजह तो है पीरियड। पीरियड के दौरान महिलाओं का ब्लैडर उतनी बेहतर ढंग से काम नहीं कर पाता तो इस समय उन्हें बार-बार ऐसी जरूरत महसूस होती है। दूसरी वजह भी पीरियड है। जी हां, पीरियड की घड़ी टिकटिकाने पर ज्यादातर महिलाएं बार-बार पक्का करना चाहती हैं कि कहीं उनका समय तो नहीं आ गया। तीसरी वजह भी इसी से जुड़ी है। पीरियड के दौरान औरतों को पैड बदलने और साफ-सफाई में समय लगता है। ऐसे में वे अगर पब्लिक शौचालय में हों तो बाहर कतार लंबी होती जाती है।
एक और कारण भी है, जिससे औरतों को बार-बार वॉशरूम जाना पड़ता है। मां बनने के बाद औरतों के पेट के निचले हिस्से की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। ऐसे में अगर पुरुष और महिला बराबर पानी पिएं तो भी महिलाओं को अपना पेट खाली करने की जरूरत पहले पड़ेगी। ये हम नहीं, विज्ञान कहता है। वही विज्ञान, जिसकी खोज पुरुषों ने की और जिसके चारो खांचे उन्हीं के कांधे पर टिके हैं।
गैरबराबरी की बात पर एक अमेरिकी किस्सा याद आता है। अमेरिका में साल 2011 तक निचले सदन में महिला नेताओं के लिए अलग से वॉशरूम नहीं था। जो वॉशरूम था, वो सदन से काफी दूर। 5 मिनट जाने, 5 मिनट आने और 3 मिनट भी शौचालय के मान लें तो सदन की कार्रवाई के लगभग 13 मिनट बीत जाते थे। ऐसे में महिला सांसदों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वे प्यास से चटकते गले को डपटकर दम साधे ब्रेक का इंतजार करें। भेदभाव यहीं खत्म नहीं होता, आगे कहानी ये है कि पास ही में पुरुषों का वॉशरूम था। आधुनिक महलनुमा इस वॉशरूम में एक फायरप्लेस भी था कि कहीं किसी सांसद को नजला न हो जाए। साथ में जूते चमकाने की मशीन लगी हुई थी। और तो और एक टेलीविजन भी था, जो सदन की सीधी कार्रवाई दिखाता था। यानी पुरुष सांसद आग तापता हुआ, जूते भी चमका सकता है और सदन की कार्रवाई भी नहीं छूटेगी। जेब में काजू-बादाम भरकर लाए तो कुरकुरे नाश्ते के साथ काम चलता रहेगा।
जब हाल तक महिला सांसदों तक ने शौचालयों की तंगी झेली तो आम औरतों का क्या! भारत में हर औरत अपने जीवनकाल में अनेकों बार अपनी इस छींक जितने नैसर्गिक दबाव को रोकती है। शॉपिंग मॉल में काम करने वाली औरतें 8 से 12 घंटे पानी की कुछ घूंटों के सहारे रहती हैं ताकि वॉशरूम जाकर कतार में लगने में समय बर्बाद न हो। गांवों के हालात और भी खराब हैं। बहुतेरे घरों में शौचालय नहीं।

यहां तक कि गांव के मुखिया तक के घर में बड़ी-अचार और पुराने कपड़ों के लिए बड़ी कोठी हो, दालान इतना बड़ा हो कि बच्चे क्रिकेट खेल सकें, वहां भी शौचालय गैरजरूरी होता है। जो काम खुले मैदान में हो जाए, उस पर पैसे खर्चने की क्या जरूरत। तो वहां औरतों के लिए पानी पीना या भरपेट खाना तक एडवेंचर से कम नहीं। या तो वे बसे हुए गांव में ऐसा सूना कोना खोज लें, जहां सूरज की रोशनी तक न फटके। या फिर अंधेरे का इंतजार करें।
नतीजा- संक्रमण। महिलाओं के शौचालय के अधिकार पर बात करने वाली संस्था पी सेफ (Pee Safe) की स्टडी के मुताबिक देश की लगभग आधी महिलाएं अपने जीवन में एक न एक बार ब्लैडर संक्रमण झेलती है। प्रेग्नेंट महिलाओं में ये संक्रमण मां और शिशु के लिए जानलेवा भी हो सकता है। 50 पार होने के बाद भी महिलाओं को शौचालय की जरूरत पुरुषों से ज्यादा होती है क्योंकि मेनोपॉज के कारण यूरिनरी ट्रैक्ट में भी बदलाव आता है।
इधर औरतों की जरूरत को पचड़ा कहकर खारिज करते मर्द लगातार सार्वजनिक में फारिग हो रहे हैं। फ्रांस के फैशन कैपिटल पेरिस तक के सूटधारी मर्द इस आदत के मारे हैं। ये देखते हुए पेरिस की गलियों में गुस्साई औरतों ने नया ही प्रयोग कर डाला। उन्होंने चुपके से उन जगहों को हाइड्रोफोबिक पेंट से रंगवा दिया, जहां मर्दानी आदत की बू आती थी। बता दें कि हाइड्रोफोबिक पेंट में उलटवार करने की तासीर होती है। यानी अगर ऐसी दीवार पर पानी फेंके तो दीवार गीली नहीं होती, बल्कि पानी को उल्टा फेंकती है।
खैर! शौचालय जैसे बेरंग, बेमजा पहलू पर बात करते हुए अचानक शाहजहां और मुमताज की प्रेम कहानी याद आती है। शाहजहां ने अपनी हसीन बेगम के लिए एक बेमिसाल हमाम बनवाया था। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में ताप्ती नदी किनारे बने इस स्नानघर में तमाम सुविधाएं थीं। सबसे खास ये कि संदल, खस, केवड़ा, गुलाब की खुशबुओं से महकते इस हमाम में शौचालय की भी सुविधा थी। यानी मुग़ल बादशाह अपनी बीवी की जनाना जरूरतों को एकदम बिसराए नहीं बैठा था।
ताजमहल जैसी इमारत बनवाने से पहले बादशाह ने बेगम के लिए शौचालय बनवाया था। डियर मेन! आप भी चांद-तारे तोड़ने, या एक और ताज बनवाने जैसे बचकाने वादे छोड़ शौचालय ही बनवा दें। इस काम में उतना रस नहीं, न ऐसी चुनौती है, जो आपको ललकारे, लेकिन यकीन मानिए, ताजमहल से ज़्यादा बड़ी जरूरत फिलहाल शौचालय ही है।